धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥
धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है
इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।
Ramayan Shlok 3
उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् ।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥
उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है ।
उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
Ramayan Shlok
Ramayan Shlok 4
क्रोध – वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् ।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥
क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता ।
क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है ।
उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।
Ramayan Shlok 5
कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है ।
कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
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Ramayan Shlok 6
सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥
किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है
तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता – सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।
Tulsidas Ramayan Shlok 7
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥
उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के
सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।
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